राजस्थान में राजपूत शासन काल में चारण जाति के एक से बढ़कर
एक कवि हुए है,इन चारण कवियों व उनकी प्रतिभा को राजपूत राजाओं ने पूर्ण
सम्मान व संरक्षण दिया | पर ज्यादातर लोग इन कवियों द्वारा राजाओं के शौर्य
व उनकी शान में कविताएँ बनाने को उनकी चापलूसी मानते है पर ऐसा नहीं था इन
कवियों को बोलने की राजपूत राजाओं ने पूरी आजादी दे रखी थी,ये कवि जैसा
देखते थे वैसा ही अपनी कविता के माध्यम से बिना किसी डर के निर्भीकता से
अभिव्यक्त कर देते थे,यही नहीं कई मौकों पर ये कवि राजा को किसी गलत कार्य
के विरुद्ध अपनी कविता के माध्यम से फटकार भी देते थे | इस फटकार के चलते
कई कवियों को जेल की हवा खानी पड़ी तो कईयों को अपने प्राण गंवाने पड़े,पर
फिर भी ये चारण कवि अपने कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटते थे ऐसा ही एक कवि
रंगरेला था जिसे अपनी निर्भीकता की कीमत जैसलमेर की जेल में रहकर चुकानी
पड़ी पर उसने अपनी कविता में वही कहा जो उसने देखा | आइये आज चर्चा करते है
इस निर्भीक कवि व उसकी खरी कविता पर-
१६ वीं शताब्दी के लगभग मारवाड़ राज्य के सांगड़ गांव में चारण जाति की बीठू शाखा में कवि वीरदासजी ने जन्म लिया था | उन्हें कविता करने की प्रतिभा जन्म जात ही मिली थी | और वे अपनी कविता में किसी के साथ भेदभाव नहीं करते थे राजपूतों पर आश्रित होने के बावजूद उन्होंने कमालखां की वीरता की प्रसंसा की | जैसलमेर के शासकों के वे काफी नजदीक थे बावजूद उन्होंने जैसलमेर के भूगोल, ऋतुओं ,वहां पानी की कमी,रहन सहन के ढंग आदि पर उन्होंने खरी खोटी इतनी कविताएँ बनाई जो "जेसलमेर रो जस" नाम से प्रसिद्ध हुई |
जब कवि वीरदासजी बारहठ को पता चला कि जालौर का शासक कमालखां कवियों का बहुत कद्रदान है तो वे अपनी प्रतिभा दिखाने जालौर चले गए | जालौर पहुँच वे एक कुँए पर अपने कपड़े धो रहे थे कि तभी कामलखां घोड़े पर सवारी करता उधर आ पहुंचा कुंवा देख कामलखां भी अपने घोड़े को पानी पिलाने वहां आ गया ,बारहठ जी की उस नजर पड़ी तो वे उसके कपड़े व हावभाव देख समझ गए कि ये ही यहाँ का नबाब कमालखां है और वे बिना उससे बोले अपने कपड़े धोते रहे और कपड़ों को इतनी जोर से फटके लगाये कि उनके छींटे सीधे नबाब पर पड़े | कपड़ों से उछलकर पानी के छींटे पड़ते ही नबाब बोला -
" ओ कुट्टण , कपड़ा कूटणा बंद कर |"
नबाब की बात सुन कवि ने कविता के लहजे में जबाब दिया - " कुट्टण तेरा बाप "
बाप का नाम सुनते ही नबाब को गुस्सा आया और उसका हाथ सीधा तलवार की मुठ पर गया | तभी कवि ने अपनी आगे की कविता की तुक पूरी की -
" जिकै लाहोरी लुट्टी |"
बाप के द्वारा लाहौर लुटने की बात सुनकर नबाब का हाथ तलवार की मुठ से हट गया | और कवि ने अपनी कविता आगे बढाई -
कुट्टण तेरा बाप , जिकै सिरोही कुट्टी
इतना सुनते ही नबाब का गुस्सा शांत हो गया और कवि बोलने लगा -
कुट्टण तेरा बाप , बायडगढ़ बोया
कुट्टण तेरा बाप , घमुंडा धबोया |
कुटिया प्रसन्न खागां कितां
झूंझे ऊर संके धरा |
मो कुट्टण न कहे कमालखां
तूं कुट्टण किणियारा |
कुट्टण तो तेरा बाप था जिसने कूट कूट कर लाहोर लुटी फिर सिरोही को कुटा , बाड़मेर और घूंमडा को कुटा | तुमने शत्रुओं को अपनी खड्ग से इतना कुटा कि ये धरा भी तुमसे कांपती है | अरे कमालखां तूं मुझे कुट्टण क्यों कह रहा है, कुट्टण तो तूं खुद है जिसने जालौर के गढ़ पर कूट कर अपने कब्जे में कर रखा है |
अपने बारे में शौर्यपूर्ण गाथा सुनकर नबाब कमालखां तो झुमने लगा,घोड़े से उतर कवि को बांहों में ले गले लगा लिया और कहने लगा -" हे कविराज ! तुमने तो रंग के रेले बहा दिए तुम तो रंगरेले हो |" और उसी दिन से कवि वीरदास जि बारहठ का नाम रंगरेला पड़ गया |
कुछ दिन जालौर में नबाब को अपनी प्रतिभा दिखाने व नाम कमाने के बाद रंगरेला कई राज्यों के राजाओं के पास घूमता हुआ वापस जैसलमेर के लिए रवाना हुआ | जैसलमेर पहुंचना उस जमाने में बड़ी हिम्मत का काम होता था | जैसलमेर पहुँचते ही रंगरेला ने अपने सफ़र की परेशानियों को यूँ अभिव्यक्त किया -
घोडा होवै काठ रा, पिंडली होय पखांण
लोह तणां होई लुगड़ा ,(तो) जाईजे जैसांण |
काठ का घोड़ा पास में हो,पिंडलियों में पंख लगे हो, लोहे के जिसके पास कपड़े हो तभी जैसलमेर जाना |
जैसलमेर पहुँचने के बाद रंगरेला ने जैसलमेर में पड़ने वाले अकालों व अभावों के बारे में कविताएँ कही जिन्हें सुनकर जैसलमेर के रावल को बहुत बुरा लगा उन्होंने बुलाकर कहा - कि वो उनके राज्य के बारे भोंडी कविताएँ क्यों कह रहा है |
रंगरेला बोला - " महाराज ! मैं तो जैसा देख रहा हूँ वैसा ही कह रहा हूँ |"
" तूं यहाँ कैसा देख रहा है ? रावल बोले |
रंगरेला ने कविता में कहा -
गळयोड़ी जाजम मंझ बगार |
जुडै जहं रावळ रो दरबार ||
जाजम (बड़ी दरी)गली व फटी पड़ी है उसमे जगह जगह छेद हो रखे है उसी जाजम पर बैठ रावल का दरबार लगा है |
रावल जी को बहुत गुस्सा आया उन्होंने उसकी जबान बंद करने का हुक्म दिया पर निडर,निर्भीक कवि कहाँ रुकने वाला था उसने कहना जारी रखा -
टिकायत राणी गद्दा टोळ
हेकली लावत नीर हिलोळ
मुलक मंझार न बोले मोर
जरक्खां,सेहां, गोहां जोर |
आपकी पाटवी राणी तो गधों पर पानी भरकर लाती थी | और इस मुल्क में कहीं भी मोरों की आवाज नहीं सुनाई देती | जंगल में जानवरों के नाम पर जरख,गोह और सेहियों के अलावा और कुछ नहीं मिलता|
"टिकायत राणी गद्दा टोळ ,हेकली लावत नीर हिलोळ" कहने पर रावल ने भड़ककर पूछा - कि तूने ये किस आधार पर कह दिया |
रंगरेला ने जबाब दिया -" आप अपनी पाटवी राणी सोढ़ी जी से पूछ लो ,आप जैसलमेर वाले पाटवी शादी सोढों के यहाँ करते हो और सोढों की बेटियां गधों पर पानी भर कर लाती है | आपकी राणी भी गधो पर लादकर पानी लाती थी | रावल जी मैं मेरी कविता में एक शब्द भी झूंठ नहीं बोलता | आप भले ही उसे सुनकर खुश होए या नाराज |मैं तो जैसा देखूंगा वैसा ही वर्णन करूँगा |" और रंगरेला ने कहना शुरू किया -
फाटोड़ी जाजम चारों फेर,
घोडां रे पास बुगां रो ढेर |
म्हे दीठा जादव जैसलमेर ||
जैसलमेर के यदुवंशियों को देखा, उनकी जाजम चारों और से फटी पड़ी है उनके घोड़ों के पास बुगों (एक तरह से घोड़ों की जुएँ) का ढेर लगा है |
पद्ममण पाणी जात प्रभात
रुळन्ती आवै आधी रात |
बिलक्खां टाबर जोवे बाट
धिनो घर घाट धिनो घर घाट |
औरते सुबह होते ही पानी भरने कोसों दूर जाती है जो पुरे दिन भर भटकने के बाद आधी रात को पानी के मटके लेकर लौटती है,पीछे से उनके भूखे बच्चे बिलखते रहते है | धन्य है जैसलमेर की धरा ! धन्य है |
राता रीड़ थोहर मधम रुंख |
भमै दिगपाळ मरतां भूख ||
कंकरों छोटी छोटी टेकड़ीयां है, पेड़ पौधों के नाम पर एक थोहर (केक्टस) है | रावल जी के पास दो चार हाथी है जो बेचारे भूखों मरते (कांकड़)जंगल में भटकते रहते है |
रंगरेला जैसे जैसे जैसलमेर के बारे में ,उनके राज के बारे में ,उनकी सेना ,उनकी प्रजा,उनके घोड़ों हाथियों व उनके राज्य प्रबंधन के बारे के खरी खरी बोलता गया | रावल जी का गुस्सा उतना ही बढ़ता गया | वे गुस्से से लाल पीले हो गए और उन्होंने रंगरेला को पकड़कर जेल में डाल देने का हुक्म दे दिया |
जब रंगरेला को सैनिक पकड़कर ले जाने लगे तो तब उसने रावल जी व उनके सरदारों की आँखों में आँखें डालकर कहा -
कवीसर पारख ठाठ न कोय |
हस्त्थी पैंस बराबर होय ||
यहाँ कवियों व गुणीजनों की कोई कद्र नहीं | यहाँ तो हाथी और भेंस एक बराबर है |
रंगरेला ने कह दिया -" एक बार नहीं हजार बार जेल में डाल दो पर मैं तो मेरी कविता में सच ही कहूँगा मुझे जैसा दिखाई देगा उसका वैसा ही वर्णन करूँगा | खरी खरी सुनाना मेरा कर्तव्य भी है | वो भी कोई कवि होता है जो खरी बात.न कहकर झूंठी तारीफ़ करे |"
रंगरेला को जैसलमेर किले की कैद में बंद कर दिया गया |
कुछ समय बाद जैसलमेर रावल जी पुत्री की शादी थी | उसे ब्याहने बीकानेर के राजा रायसिंह बारात लेकर आये वे कवियों व गुणीजनों के कद्रदान थे | जब वे बारात लेकर हाथी पर बैठ गुजर रहे थे गाजा बाजा सुन रंगरेला को भी पता चला जैसे बीकानेर राजा उसकी कोठरी के पास से गुजरे उसने जोर से एक कविता बोली | बीकानेर नरेश के कविता कानों में पड़ते ही उन्होंने हाथी रुकवा पूछा ये कविता कौन बोल रहा है, उसे सामने लाओ,कोई नहीं बोला तो ,रंगरेला ने फिर जोर से कहा कि - मैं जेल की कोठरी से बोल रहा हूँ मुझे कैद कर रखा गया है | हे कवियों के पारखी राजा ! मुझे जल्दी आजाद करावो |"
इतना सुनते ही बीकानेर राजा रायसिंहजी ने उसके बारे में जानकारी ली | उन्हें बताया गया कि वह राज्य का गुनाहगार है इसलिए छोड़ा नहीं जा सकता | पर बीकानेर राजा ने साफ़ कह दिया कि - अब कवि को कैद से छोड़ने के बाद ही मैं शादी के लिए आगे बढूँगा |
तब जैसलमेर वालों ने रंगरेला को आजाद किया | बीकानेर राजाजी ने कवि को अपने आदमियों की हिफाजत में भेज दिया और शादी के बाद उसे बीकानेर ले आये | इतना बढ़िया कवि पाकर रायसिंह जी भी खुश हुए | जब उन्हें अपनी जैसलमेर वाली राणी भटियानी जी को चिढ़ा कर मजाक करने की सूझती तो वे रंगरेला को बुला राणी के आगे उसे " जेसलमेर रो जस" गाने का हुक्म देते | और रंगरेला जैसलमेर रियासत का ऐसा वर्णन करता कि एक तरफ रानी भटियानी जी को खीझ आती और राजा जी की हंसी नहीं रूकती |
१६ वीं शताब्दी के लगभग मारवाड़ राज्य के सांगड़ गांव में चारण जाति की बीठू शाखा में कवि वीरदासजी ने जन्म लिया था | उन्हें कविता करने की प्रतिभा जन्म जात ही मिली थी | और वे अपनी कविता में किसी के साथ भेदभाव नहीं करते थे राजपूतों पर आश्रित होने के बावजूद उन्होंने कमालखां की वीरता की प्रसंसा की | जैसलमेर के शासकों के वे काफी नजदीक थे बावजूद उन्होंने जैसलमेर के भूगोल, ऋतुओं ,वहां पानी की कमी,रहन सहन के ढंग आदि पर उन्होंने खरी खोटी इतनी कविताएँ बनाई जो "जेसलमेर रो जस" नाम से प्रसिद्ध हुई |
जब कवि वीरदासजी बारहठ को पता चला कि जालौर का शासक कमालखां कवियों का बहुत कद्रदान है तो वे अपनी प्रतिभा दिखाने जालौर चले गए | जालौर पहुँच वे एक कुँए पर अपने कपड़े धो रहे थे कि तभी कामलखां घोड़े पर सवारी करता उधर आ पहुंचा कुंवा देख कामलखां भी अपने घोड़े को पानी पिलाने वहां आ गया ,बारहठ जी की उस नजर पड़ी तो वे उसके कपड़े व हावभाव देख समझ गए कि ये ही यहाँ का नबाब कमालखां है और वे बिना उससे बोले अपने कपड़े धोते रहे और कपड़ों को इतनी जोर से फटके लगाये कि उनके छींटे सीधे नबाब पर पड़े | कपड़ों से उछलकर पानी के छींटे पड़ते ही नबाब बोला -
नबाब की बात सुन कवि ने कविता के लहजे में जबाब दिया - " कुट्टण तेरा बाप "
बाप का नाम सुनते ही नबाब को गुस्सा आया और उसका हाथ सीधा तलवार की मुठ पर गया | तभी कवि ने अपनी आगे की कविता की तुक पूरी की -
बाप के द्वारा लाहौर लुटने की बात सुनकर नबाब का हाथ तलवार की मुठ से हट गया | और कवि ने अपनी कविता आगे बढाई -
इतना सुनते ही नबाब का गुस्सा शांत हो गया और कवि बोलने लगा -
कुट्टण तेरा बाप , घमुंडा धबोया |
कुटिया प्रसन्न खागां कितां
झूंझे ऊर संके धरा |
मो कुट्टण न कहे कमालखां
तूं कुट्टण किणियारा |
कुट्टण तो तेरा बाप था जिसने कूट कूट कर लाहोर लुटी फिर सिरोही को कुटा , बाड़मेर और घूंमडा को कुटा | तुमने शत्रुओं को अपनी खड्ग से इतना कुटा कि ये धरा भी तुमसे कांपती है | अरे कमालखां तूं मुझे कुट्टण क्यों कह रहा है, कुट्टण तो तूं खुद है जिसने जालौर के गढ़ पर कूट कर अपने कब्जे में कर रखा है |
अपने बारे में शौर्यपूर्ण गाथा सुनकर नबाब कमालखां तो झुमने लगा,घोड़े से उतर कवि को बांहों में ले गले लगा लिया और कहने लगा -" हे कविराज ! तुमने तो रंग के रेले बहा दिए तुम तो रंगरेले हो |" और उसी दिन से कवि वीरदास जि बारहठ का नाम रंगरेला पड़ गया |
कुछ दिन जालौर में नबाब को अपनी प्रतिभा दिखाने व नाम कमाने के बाद रंगरेला कई राज्यों के राजाओं के पास घूमता हुआ वापस जैसलमेर के लिए रवाना हुआ | जैसलमेर पहुंचना उस जमाने में बड़ी हिम्मत का काम होता था | जैसलमेर पहुँचते ही रंगरेला ने अपने सफ़र की परेशानियों को यूँ अभिव्यक्त किया -
लोह तणां होई लुगड़ा ,(तो) जाईजे जैसांण |
काठ का घोड़ा पास में हो,पिंडलियों में पंख लगे हो, लोहे के जिसके पास कपड़े हो तभी जैसलमेर जाना |
जैसलमेर पहुँचने के बाद रंगरेला ने जैसलमेर में पड़ने वाले अकालों व अभावों के बारे में कविताएँ कही जिन्हें सुनकर जैसलमेर के रावल को बहुत बुरा लगा उन्होंने बुलाकर कहा - कि वो उनके राज्य के बारे भोंडी कविताएँ क्यों कह रहा है |
रंगरेला बोला - " महाराज ! मैं तो जैसा देख रहा हूँ वैसा ही कह रहा हूँ |"
" तूं यहाँ कैसा देख रहा है ? रावल बोले |
रंगरेला ने कविता में कहा -
जुडै जहं रावळ रो दरबार ||
जाजम (बड़ी दरी)गली व फटी पड़ी है उसमे जगह जगह छेद हो रखे है उसी जाजम पर बैठ रावल का दरबार लगा है |
रावल जी को बहुत गुस्सा आया उन्होंने उसकी जबान बंद करने का हुक्म दिया पर निडर,निर्भीक कवि कहाँ रुकने वाला था उसने कहना जारी रखा -
हेकली लावत नीर हिलोळ
मुलक मंझार न बोले मोर
जरक्खां,सेहां, गोहां जोर |
आपकी पाटवी राणी तो गधों पर पानी भरकर लाती थी | और इस मुल्क में कहीं भी मोरों की आवाज नहीं सुनाई देती | जंगल में जानवरों के नाम पर जरख,गोह और सेहियों के अलावा और कुछ नहीं मिलता|
"टिकायत राणी गद्दा टोळ ,हेकली लावत नीर हिलोळ" कहने पर रावल ने भड़ककर पूछा - कि तूने ये किस आधार पर कह दिया |
रंगरेला ने जबाब दिया -" आप अपनी पाटवी राणी सोढ़ी जी से पूछ लो ,आप जैसलमेर वाले पाटवी शादी सोढों के यहाँ करते हो और सोढों की बेटियां गधों पर पानी भर कर लाती है | आपकी राणी भी गधो पर लादकर पानी लाती थी | रावल जी मैं मेरी कविता में एक शब्द भी झूंठ नहीं बोलता | आप भले ही उसे सुनकर खुश होए या नाराज |मैं तो जैसा देखूंगा वैसा ही वर्णन करूँगा |" और रंगरेला ने कहना शुरू किया -
घोडां रे पास बुगां रो ढेर |
म्हे दीठा जादव जैसलमेर ||
जैसलमेर के यदुवंशियों को देखा, उनकी जाजम चारों और से फटी पड़ी है उनके घोड़ों के पास बुगों (एक तरह से घोड़ों की जुएँ) का ढेर लगा है |
रुळन्ती आवै आधी रात |
बिलक्खां टाबर जोवे बाट
धिनो घर घाट धिनो घर घाट |
औरते सुबह होते ही पानी भरने कोसों दूर जाती है जो पुरे दिन भर भटकने के बाद आधी रात को पानी के मटके लेकर लौटती है,पीछे से उनके भूखे बच्चे बिलखते रहते है | धन्य है जैसलमेर की धरा ! धन्य है |
भमै दिगपाळ मरतां भूख ||
कंकरों छोटी छोटी टेकड़ीयां है, पेड़ पौधों के नाम पर एक थोहर (केक्टस) है | रावल जी के पास दो चार हाथी है जो बेचारे भूखों मरते (कांकड़)जंगल में भटकते रहते है |
रंगरेला जैसे जैसे जैसलमेर के बारे में ,उनके राज के बारे में ,उनकी सेना ,उनकी प्रजा,उनके घोड़ों हाथियों व उनके राज्य प्रबंधन के बारे के खरी खरी बोलता गया | रावल जी का गुस्सा उतना ही बढ़ता गया | वे गुस्से से लाल पीले हो गए और उन्होंने रंगरेला को पकड़कर जेल में डाल देने का हुक्म दे दिया |
जब रंगरेला को सैनिक पकड़कर ले जाने लगे तो तब उसने रावल जी व उनके सरदारों की आँखों में आँखें डालकर कहा -
हस्त्थी पैंस बराबर होय ||
यहाँ कवियों व गुणीजनों की कोई कद्र नहीं | यहाँ तो हाथी और भेंस एक बराबर है |
रंगरेला ने कह दिया -" एक बार नहीं हजार बार जेल में डाल दो पर मैं तो मेरी कविता में सच ही कहूँगा मुझे जैसा दिखाई देगा उसका वैसा ही वर्णन करूँगा | खरी खरी सुनाना मेरा कर्तव्य भी है | वो भी कोई कवि होता है जो खरी बात.न कहकर झूंठी तारीफ़ करे |"
कुछ समय बाद जैसलमेर रावल जी पुत्री की शादी थी | उसे ब्याहने बीकानेर के राजा रायसिंह बारात लेकर आये वे कवियों व गुणीजनों के कद्रदान थे | जब वे बारात लेकर हाथी पर बैठ गुजर रहे थे गाजा बाजा सुन रंगरेला को भी पता चला जैसे बीकानेर राजा उसकी कोठरी के पास से गुजरे उसने जोर से एक कविता बोली | बीकानेर नरेश के कविता कानों में पड़ते ही उन्होंने हाथी रुकवा पूछा ये कविता कौन बोल रहा है, उसे सामने लाओ,कोई नहीं बोला तो ,रंगरेला ने फिर जोर से कहा कि - मैं जेल की कोठरी से बोल रहा हूँ मुझे कैद कर रखा गया है | हे कवियों के पारखी राजा ! मुझे जल्दी आजाद करावो |"
इतना सुनते ही बीकानेर राजा रायसिंहजी ने उसके बारे में जानकारी ली | उन्हें बताया गया कि वह राज्य का गुनाहगार है इसलिए छोड़ा नहीं जा सकता | पर बीकानेर राजा ने साफ़ कह दिया कि - अब कवि को कैद से छोड़ने के बाद ही मैं शादी के लिए आगे बढूँगा |
तब जैसलमेर वालों ने रंगरेला को आजाद किया | बीकानेर राजाजी ने कवि को अपने आदमियों की हिफाजत में भेज दिया और शादी के बाद उसे बीकानेर ले आये | इतना बढ़िया कवि पाकर रायसिंह जी भी खुश हुए | जब उन्हें अपनी जैसलमेर वाली राणी भटियानी जी को चिढ़ा कर मजाक करने की सूझती तो वे रंगरेला को बुला राणी के आगे उसे " जेसलमेर रो जस" गाने का हुक्म देते | और रंगरेला जैसलमेर रियासत का ऐसा वर्णन करता कि एक तरफ रानी भटियानी जी को खीझ आती और राजा जी की हंसी नहीं रूकती |
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