रविवार, 16 अगस्त 2015

PAK: पंजाब के गृह मंत्री के दफ्तर पर आतंकी हमला, 7 की मौत, मंत्री बुरी तरह जख्मी

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पाकिस्तान में रविवार दोपहर आतंकी हमला हुआ. एक फिदायीन आतंकी ने पंजाब के गृह मंत्री शुजा खानजादा के दफ्तर पर खुद को बम से उड़ा लिया. हमले में गृह मंत्री खानजादा बुरी तरह जख्मी हो गए.मंत्री खानजादा को मलबे से बाहर निकाल लिया गया है. इस हमले में खानजादा बुरी तरह जख्मी हैं और उनका इलाज चल रहा है. प्रत्यक्षदर्शि‍यों के मुताबिक खानजादा हमले के बाद लगातार मदद के चिल्ला रहे थे लेकिन भारी मलबे की वजह से उनको बाहर निकालने में देरी हो रही थी. अभी भी कई लोग मलबे में दबे हैं. हमले में अब तक 7 लोगों की मौत हो गई. जबकि 25 से ज्यादा लोग घायल बताए जा रहे हैं. बताया जा रहा है कि हमले के वक्त उनके दफ्तर में काफी संख्या में लोग मौजूद थे.

रविवार, 9 अगस्त 2015

एक कवि रंगरेला जिसे अपनी निर्भीकता कि किमत

राजस्थान में राजपूत शासन काल में चारण जाति के एक से बढ़कर एक कवि हुए है,इन चारण कवियों व उनकी प्रतिभा को राजपूत राजाओं ने पूर्ण सम्मान व संरक्षण दिया | पर ज्यादातर लोग इन कवियों द्वारा राजाओं के शौर्य व उनकी शान में कविताएँ बनाने को उनकी चापलूसी मानते है पर ऐसा नहीं था इन कवियों को बोलने की राजपूत राजाओं ने पूरी आजादी दे रखी थी,ये कवि जैसा देखते थे वैसा ही अपनी कविता के माध्यम से बिना किसी डर के निर्भीकता से अभिव्यक्त कर देते थे,यही नहीं कई मौकों पर ये कवि राजा को किसी गलत कार्य के विरुद्ध अपनी कविता के माध्यम से फटकार भी देते थे | इस फटकार के चलते कई कवियों को जेल की हवा खानी पड़ी तो कईयों को अपने प्राण गंवाने पड़े,पर फिर भी ये चारण कवि अपने कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटते थे ऐसा ही एक कवि रंगरेला था जिसे अपनी निर्भीकता की कीमत जैसलमेर की जेल में रहकर चुकानी पड़ी पर उसने अपनी कविता में वही कहा जो उसने देखा | आइये आज चर्चा करते है इस निर्भीक कवि व उसकी खरी कविता पर-
१६ वीं शताब्दी के लगभग मारवाड़ राज्य के सांगड़ गांव में चारण जाति की बीठू शाखा में कवि वीरदासजी ने जन्म लिया था | उन्हें कविता करने की प्रतिभा जन्म जात ही मिली थी | और वे अपनी कविता में किसी के साथ भेदभाव नहीं करते थे राजपूतों पर आश्रित होने के बावजूद उन्होंने कमालखां की वीरता की प्रसंसा की | जैसलमेर के शासकों के वे काफी नजदीक थे बावजूद उन्होंने जैसलमेर के भूगोल, ऋतुओं ,वहां पानी की कमी,रहन सहन के ढंग आदि पर उन्होंने खरी खोटी इतनी कविताएँ बनाई जो "जेसलमेर रो जस" नाम से प्रसिद्ध हुई |
जब कवि वीरदासजी बारहठ को पता चला कि जालौर का शासक कमालखां कवियों का बहुत कद्रदान है तो वे अपनी प्रतिभा दिखाने जालौर चले गए | जालौर पहुँच वे एक कुँए पर अपने कपड़े धो रहे थे कि तभी कामलखां घोड़े पर सवारी करता उधर आ पहुंचा कुंवा देख कामलखां भी अपने घोड़े को पानी पिलाने वहां आ गया ,बारहठ जी की उस नजर पड़ी तो वे उसके कपड़े व हावभाव देख समझ गए कि ये ही यहाँ का नबाब कमालखां है और वे बिना उससे बोले अपने कपड़े धोते रहे और कपड़ों को इतनी जोर से फटके लगाये कि उनके छींटे सीधे नबाब पर पड़े | कपड़ों से उछलकर पानी के छींटे पड़ते ही नबाब बोला -

" ओ कुट्टण , कपड़ा कूटणा बंद कर |"

नबाब की बात सुन कवि ने कविता के लहजे में जबाब दिया - " कुट्टण तेरा बाप "
बाप का नाम सुनते ही नबाब को गुस्सा आया और उसका हाथ सीधा तलवार की मुठ पर गया | तभी कवि ने अपनी आगे की कविता की तुक पूरी की -
" जिकै लाहोरी लुट्टी |"

बाप के द्वारा लाहौर लुटने की बात सुनकर नबाब का हाथ तलवार की मुठ से हट गया | और कवि ने अपनी कविता आगे बढाई -
कुट्टण तेरा बाप , जिकै सिरोही कुट्टी

इतना सुनते ही नबाब का गुस्सा शांत हो गया और कवि बोलने लगा -
कुट्टण तेरा बाप , बायडगढ़ बोया
कुट्टण तेरा बाप , घमुंडा धबोया |
कुटिया प्रसन्न खागां कितां
झूंझे ऊर संके धरा |
मो कुट्टण न कहे कमालखां
तूं कुट्टण किणियारा |

कुट्टण तो तेरा बाप था जिसने कूट कूट कर लाहोर लुटी फिर सिरोही को कुटा , बाड़मेर और घूंमडा को कुटा | तुमने शत्रुओं को अपनी खड्ग से इतना कुटा कि ये धरा भी तुमसे कांपती है | अरे कमालखां तूं मुझे कुट्टण क्यों कह रहा है, कुट्टण तो तूं खुद है जिसने जालौर के गढ़ पर कूट कर अपने कब्जे में कर रखा है |
अपने बारे में शौर्यपूर्ण गाथा सुनकर नबाब कमालखां तो झुमने लगा,घोड़े से उतर कवि को बांहों में ले गले लगा लिया और कहने लगा -" हे कविराज ! तुमने तो रंग के रेले बहा दिए तुम तो रंगरेले हो |" और उसी दिन से कवि वीरदास जि बारहठ का नाम रंगरेला पड़ गया |
कुछ दिन जालौर में नबाब को अपनी प्रतिभा दिखाने व नाम कमाने के बाद रंगरेला कई राज्यों के राजाओं के पास घूमता हुआ वापस जैसलमेर के लिए रवाना हुआ | जैसलमेर पहुंचना उस जमाने में बड़ी हिम्मत का काम होता था | जैसलमेर पहुँचते ही रंगरेला ने अपने सफ़र की परेशानियों को यूँ अभिव्यक्त किया -
घोडा होवै काठ रा, पिंडली होय पखांण
लोह तणां होई लुगड़ा ,(तो) जाईजे जैसांण |

काठ का घोड़ा पास में हो,पिंडलियों में पंख लगे हो, लोहे के जिसके पास कपड़े हो तभी जैसलमेर जाना |
जैसलमेर पहुँचने के बाद रंगरेला ने जैसलमेर में पड़ने वाले अकालों व अभावों के बारे में कविताएँ कही जिन्हें सुनकर जैसलमेर के रावल को बहुत बुरा लगा उन्होंने बुलाकर कहा - कि वो उनके राज्य के बारे भोंडी कविताएँ क्यों कह रहा है |
रंगरेला बोला - " महाराज ! मैं तो जैसा देख रहा हूँ वैसा ही कह रहा हूँ |"
" तूं यहाँ कैसा देख रहा है ? रावल बोले |
रंगरेला ने कविता में कहा -
गळयोड़ी जाजम मंझ बगार |
जुडै जहं रावळ रो दरबार ||

जाजम (बड़ी दरी)गली व फटी पड़ी है उसमे जगह जगह छेद हो रखे है उसी जाजम पर बैठ रावल का दरबार लगा है |
रावल जी को बहुत गुस्सा आया उन्होंने उसकी जबान बंद करने का हुक्म दिया पर निडर,निर्भीक कवि कहाँ रुकने वाला था उसने कहना जारी रखा -
टिकायत राणी गद्दा टोळ
हेकली लावत नीर हिलोळ
मुलक मंझार न बोले मोर
जरक्खां,सेहां, गोहां जोर |

आपकी पाटवी राणी तो गधों पर पानी भरकर लाती थी | और इस मुल्क में कहीं भी मोरों की आवाज नहीं सुनाई देती | जंगल में जानवरों के नाम पर जरख,गोह और सेहियों के अलावा और कुछ नहीं मिलता|
"टिकायत राणी गद्दा टोळ ,हेकली लावत नीर हिलोळ" कहने पर रावल ने भड़ककर पूछा - कि तूने ये किस आधार पर कह दिया |
रंगरेला ने जबाब दिया -" आप अपनी पाटवी राणी सोढ़ी जी से पूछ लो ,आप जैसलमेर वाले पाटवी शादी सोढों के यहाँ करते हो और सोढों की बेटियां गधों पर पानी भर कर लाती है | आपकी राणी भी गधो पर लादकर पानी लाती थी | रावल जी मैं मेरी कविता में एक शब्द भी झूंठ नहीं बोलता | आप भले ही उसे सुनकर खुश होए या नाराज |मैं तो जैसा देखूंगा वैसा ही वर्णन करूँगा |" और रंगरेला ने कहना शुरू किया -
फाटोड़ी जाजम चारों फेर,
घोडां रे पास बुगां रो ढेर |
म्हे दीठा जादव जैसलमेर ||

जैसलमेर के यदुवंशियों को देखा, उनकी जाजम चारों और से फटी पड़ी है उनके घोड़ों के पास बुगों (एक तरह से घोड़ों की जुएँ) का ढेर लगा है |
पद्ममण पाणी जात प्रभात
रुळन्ती आवै आधी रात |
बिलक्खां टाबर जोवे बाट
धिनो घर घाट धिनो घर घाट |

औरते सुबह होते ही पानी भरने कोसों दूर जाती है जो पुरे दिन भर भटकने के बाद आधी रात को पानी के मटके लेकर लौटती है,पीछे से उनके भूखे बच्चे बिलखते रहते है | धन्य है जैसलमेर की धरा ! धन्य है |
राता रीड़ थोहर मधम रुंख |
भमै दिगपाळ मरतां भूख ||

कंकरों छोटी छोटी टेकड़ीयां है, पेड़ पौधों के नाम पर एक थोहर (केक्टस) है | रावल जी के पास दो चार हाथी है जो बेचारे भूखों मरते (कांकड़)जंगल में भटकते रहते है |
रंगरेला जैसे जैसे जैसलमेर के बारे में ,उनके राज के बारे में ,उनकी सेना ,उनकी प्रजा,उनके घोड़ों हाथियों व उनके राज्य प्रबंधन के बारे के खरी खरी बोलता गया | रावल जी का गुस्सा उतना ही बढ़ता गया | वे गुस्से से लाल पीले हो गए और उन्होंने रंगरेला को पकड़कर जेल में डाल देने का हुक्म दे दिया |
जब रंगरेला को सैनिक पकड़कर ले जाने लगे तो तब उसने रावल जी व उनके सरदारों की आँखों में आँखें डालकर कहा -
कवीसर पारख ठाठ न कोय |
हस्त्थी पैंस बराबर होय ||

यहाँ कवियों व गुणीजनों की कोई कद्र नहीं | यहाँ तो हाथी और भेंस एक बराबर है |
रंगरेला ने कह दिया -" एक बार नहीं हजार बार जेल में डाल दो पर मैं तो मेरी कविता में सच ही कहूँगा मुझे जैसा दिखाई देगा उसका वैसा ही वर्णन करूँगा | खरी खरी सुनाना मेरा कर्तव्य भी है | वो भी कोई कवि होता है जो खरी बात.न कहकर झूंठी तारीफ़ करे |"
रंगरेला को जैसलमेर किले की कैद में बंद कर दिया गया |

कुछ समय बाद जैसलमेर रावल जी पुत्री की शादी थी | उसे ब्याहने बीकानेर के राजा रायसिंह बारात लेकर आये वे कवियों व गुणीजनों के कद्रदान थे | जब वे बारात लेकर हाथी पर बैठ गुजर रहे थे गाजा बाजा सुन रंगरेला को भी पता चला जैसे बीकानेर राजा उसकी कोठरी के पास से गुजरे उसने जोर से एक कविता बोली | बीकानेर नरेश के कविता कानों में पड़ते ही उन्होंने हाथी रुकवा पूछा ये कविता कौन बोल रहा है, उसे सामने लाओ,कोई नहीं बोला तो ,रंगरेला ने फिर जोर से कहा कि - मैं जेल की कोठरी से बोल रहा हूँ मुझे कैद कर रखा गया है | हे कवियों के पारखी राजा ! मुझे जल्दी आजाद करावो |"
इतना सुनते ही बीकानेर राजा रायसिंहजी ने उसके बारे में जानकारी ली | उन्हें बताया गया कि वह राज्य का गुनाहगार है इसलिए छोड़ा नहीं जा सकता | पर बीकानेर राजा ने साफ़ कह दिया कि - अब कवि को कैद से छोड़ने के बाद ही मैं शादी के लिए आगे बढूँगा |
तब जैसलमेर वालों ने रंगरेला को आजाद किया | बीकानेर राजाजी ने कवि को अपने आदमियों की हिफाजत में भेज दिया और शादी के बाद उसे बीकानेर ले आये | इतना बढ़िया कवि पाकर रायसिंह जी भी खुश हुए | जब उन्हें अपनी जैसलमेर वाली राणी भटियानी जी को चिढ़ा कर मजाक करने की सूझती तो वे रंगरेला को बुला राणी के आगे उसे " जेसलमेर रो जस" गाने का हुक्म देते | और रंगरेला जैसलमेर रियासत का ऐसा वर्णन करता कि एक तरफ रानी भटियानी जी को खीझ आती और राजा जी की हंसी नहीं रूकती |

मारवाड़ियों का बेजोड़ रुप लावण्य एवं व्यक्तित्व

 
किसी भी समाज के व्यक्तित्व का विश्लेषण करने में उसके रुप-रंग और शारीरिक बनावट का विशेष महत्व होता है क्योंकि चरित्र अथवा व्यक्तित्व का आधार मात्र यह मानव शरीर ही है। प्रकृति ने मारवाड़ियों को सुन्दर, चित्ताकर्षक देह व रंग-रुप प्रदान किया है। रुप के पारखी यह भली-भांति जानते हैं कि भारतवर्ष में रुप-रंग व शारीरिक सुडौलता की दृष्टि से सुंदर लोग सौराष्ट्र से लेकर कश्मीर तक विशेष रुप से मिलेंगे पर उनमें भी मारवाड़ के लोगों का रुप तो सुन्दरतम कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मारवाड़ी पुरुष औसत मध्यम कद वाली होते हैं। उनका गेहुँवा अथवा लाल मिश्रित पीत वर्ण रुप-लावण्य का प्रतीक है। फिर उनके श्याम कुन्तल बाल, गोल शिर, मृगनयन, शुक-नासिका, मुक्ता सदृश्य दंत, छोटी मुँह-फाड़ व ओष्ठ, गोल ठोड़ी, दबी हुई हिचकी, लंगी ग्रीवा, भौहों से भिड़ने वाली बिच्छु के डंक तुल्य काली मूंछे व नारियल के जटा सी लम्बी दाढ़ी, केहरी कटि व छाती, लंबे हाथ व नीचे का मांसल तंग को प्रकृति ने बड़ी चतुराई से बनाया है।
जिन प्रदेश के पुरुषों का रुप भी जब इतना मन-मोहक है तब उन माताओं के रुप-लावण्य का तो बखान कहाँ तक करें जिनके कोख से सुडौल सन्तति का जन्म होता है। माखण, भूमल, सूमल, भारमली, जैसी अनिंद्य सुन्दरियों की कहानियाँ कपोल-कल्पित नहीं हैं वरन् गाँव-गाँव में ऐसी पद्मनियां देखी जा सकती है। पूंगलगढ़ की पद्मनियां तो जग-विख्यात रही हैं, जिनका पूर्वी भाग मारवाड़ प्रदेश के अंतगर्त आता है। ऐसी पद्मनियां जब सोलह श्रृंगार कर निकलती है तो इन्द्र की अप्सराओं के तुल्य प्रतीत होती हैं।
यहाँ के नर-नारियों का वर्णन किसी कवि के द्वारा इस प्रकार मिलता है:-

१. सदा सुरंगी कामण्यां, औढ़े चंगा वेश ।
बांका भड़ खग बांधणां, अइजो मुरधर देश ।।

२. गंधी फूल गुलाग ज्यूं, उर मुरधर उद्यांण ।
मीठा बोलण मानवी, जीवण सुख जोधांग ।।
मारवाड़ के नर-नारियों के रुप का जितना बखान करें उतना अल्प रहेगा पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यहां के जनसाधारण का उच्च वयक्तित्व है। युगों के संस्कारमय जीवन ने मारवाड़-वासियों के व्यक्तित्व को बारीकी से तराशा है। सरल स्वभाव, वचन पालन, अतिथि सत्कार, आडम्बर शून्यता, कुशल व्यवहार, परिश्रमी जीवन, मीठी बोली, आस्त्कि, मारवाड़ी वयक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। ये सभी लक्षण न्यूनाधिक रुप में सत्पुरुषों के गुणों के नजदीक हैं जैसा कि कवि-कुल-शिरोमणि बाल्मीकि ने कहा है, "प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जव प्रियवादिता' अर्थात शांति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण ये सत्पुरुषों के लक्षण हैं। जनसाधारण के व्यक्तित्व स्तर से ऊपर यहां के अधिक संस्कार संपन्न समुदायों में व्यक्तित्व का वह उच्च स्तर अभी भी देखने को मिलता हैं जो आज के भौतिक व भोग प्रधान युग में लगभग समाप्त हो चुका है। जिसका आकलन एक दोहे के द्वारा इस प्रकार किया गया है:-

काछ द्रढ़ा, कर बरसणां, मन चंगा मुख मिट्ठ ।
रण सूरा जग वल्लभा, सो राजपूती दिट्ठ ।।

मारवाड़ी समाज में चोरी और जोरी को "अमीणी' (कलंक) अथवा सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिस व्यक्ति में ऐसी दुर्बलातायें हो उसे समाज सदैव पतित मानता है। आम मारवाड़ी लोगों का चोरी व जोरी विमुक्त व्यक्तित्व उच्च सांस्कृतिक स्तर का परिचायक है। मारवाड़ी व्यक्तित्व के जैसा है तथा पाश्चात्य जगत् की दोहरे व्यक्तित्व से यह काफी दूर है। यहां जीवन को सार्वजनिक व घरेलू या निजी जीवन की काल्पनिक परिधियों में बांटा गया है। वस्तुतः मनुष्य की समस्त कियाओं का योग ही उसका व्यक्तितव है।

वचन पालन मारवाड़ी समाज के व्यक्तित्व का प्रधान गुण है। रघुवंशियों द्वारा युगों पूर्व प्रतिपादित इस आर्याव
देश में "प्राण जाए पर वचन न जाए' का आदर्श मारवाड़ियों के रोम-रोम में समाया हुआ है। सगाई-विवाह, व्यापार, रुपये, सोना-चाँदी, पशुधन, जमीन-जायदाद आदि सभी का लेन-देन केवल जबान पर या केवल मौखिक स्वीकृति पर होते हैं। एक बार कह दिया सो लोहे की लकीर। समाज में ऐसे ही लोगों का यशोगान होता है:-

मरह तो जब्बान बंको, कूख बंकी गोरियां ।
सुरहल तो दूधार बंकी, तेज बंकी छोड़ियाँ ।।
मारवाड़ के सत्-पुरुषों के वचन पालन की जीवन घटनाएँ हमारी संस्कृति और इतिहास की बड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ है। पाबूजी राठौड़ द्वारा देवल चारणी को दिए वचन, वीर तेजा जी के लाछा गूजरी व विशधर सपं को दिए गए वचन, बल्लू जी चंपावत द्वारा अपने पिता गोपीनाथ जी, अमरसिंह जी राठौड़ व उदयपुर महाराणा को दिए गए वचन, जाम्भोजी द्वारा राव हूदा जी (मेड़ताधिपति) को दिए वचन आदि की कहानियों से मारवाड़ की संस्कृति व इतिहास से लोग सुपरिचित हैं। ये लोग यह भी भली-भांति जानते हैं कि मारवाड़ में जगह-जगह वचनसिद्ध महापुरुषों के दृष्टांत विद्यमान हैं जो मरुवासियों को सतत् प्रेरणा देते रहेंगे।

अतिथि सत्कार की उत्कृष्ट भावना मारवाड़ियों के व्यक्तित्व में चार-चांद लगा देती है। उनका अतिथि सत्कार जग विख्यात रहा है। इसका राज यह है कि मारवाड़ में "मेह' (वर्षा) तो बहुत कम होती है पर यहाँ "नेह' (स्नेह) का सरोवर सदा भरा रहता है। यहाँ एक लोक उक्ति बड़ी प्रचलित है कि "धरां आयोड़ो ओर धरां जायोड़ो बराबर हुवे हैं।' अर्थात घर पर आया अतिथि घर के पुत्र-पुत्री के समान होता है। अतिथि की आवभगत करना एक पुण्य अर्जित करने जैसा कार्य है। वैदिक संस्कृति के "अतिथि देवो भव' की मूल भावना न्यूनाधिक रुप में यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगा।

जिस प्रकार मनुष्य के कर्म उसके व्यक्तित्व को परखने की कसौटी है उसी प्रकार उसकी भाषा-वाणी भी उतना ही सशक्त माध्यम है। किसी देश, प्रदेश की शिष्ट, मीठी बोल-चाल की भाषा, वार्तालाप आदि वहाँ की उन्नत संस्कृति के आधार हैं।

मारवाड़ी लोगों की मीठी वाणी जग प्रसिद्ध है। यहाँ मध्यकालीन सामंती युग में राजा-महाराजाओं, रावों, जागीरदारों, दीवान व मुस्तदियों, सेठ-साहूकारों, दरबारी कवियों, पंडितों, चारण , भाटों और भांगणयारों ने दैनिक जीवन में शिष्टाचार, औपचारिकता, अदब और तमीज निर्वाह के लिए जिस मीठी शिष्ट बोली का सृजन किया, वह बेजोड़ है। मीठेपन के साथ-साथ मारवाड़ियों की भाषा बहुत ही मर्यादित है। विश्व की किसी भी भाषा में ऐसी उच्च कोटि की श्रेष्ठताएँ नहीं है।

मारवाड़ियों की बोल-चाल भाषा में "दादोसा, बाबोसा, दादीसा, भाभूसा, काकोसा, काकीसा, कँवर सा, नानूसा, मामूसा, नानीसा, मामीसा, लाडेसर, लाड़ली, बापजी, अन्नदाता, आप पधारो सा, बिराजोसा, जल अरोगावो सा, आराम फरमावो सा, राज पधारयन सोभा होसी सा' आदि ऐसी कई कर्ण प्रिय शब्दावलियां हैं जो हर आदमी हर दिन विपुलता के साथ प्रयोग करता है।

गाँव में सभी बड़े-बूढ़ों को सम्मान स्वरुप बाबा व काका शब्दों से संशोधित किया जाता है। गांव में जन्मी स्रियों को बहन-बेटी तुल्य समझकर उनके पतियों को बिना किसी विभेद के सभी लोग जंवाई या पावणां (मेहमान) कहकर पुकारते हैं।

अंत में यह कहना समीचीन होगा कि मारवाडवासियों का चित्ताकर्षक रुप-रंग, सीधा, सरल, आस्तिक भाव, परिश्रमी पर आत्म-संतोषी जीवन और उसके साथ मीठी कर्णप्रिय मर्यादित भाषा व बोली ने मिलकर उनके व्यक्तित्व को बहुत परिष्कृत कर संवारा है।
     
मारवाड़ियों का बेजोड़ रुप लावण्य एवं व्यक्तित्व
अमितेश कुमार

हजन का पेड़ भारत वर्ष में बहुतायत से पाया जाता है | इसके लिए ज्यादा ठण्ड नुकसान दायक है गर्मी कितनी भी हो झेल लेता है | बहुत दिनों से सोच रहा था इस पेड़ के बारे में लिखने के लिए लेकिन किसी न किसी कारण से ये पोस्ट लिखने का कायक्रम आगे खिसकता रहा |

सहजन का पेड़ फूल और फली के साथ

     सहजन का अंग्रेजी नाम ड्रमस्टिक,संस्कृत नाम सोभांजना, आयुर्वेद में मोक्षकाद्व और वानस्पतिक नाम मोरिंगा ओलीफेरा (moringa oleifera ) है | सहजन के बारे में काफी वैज्ञानिक खोजे हुई है | और बहुत से परिणाम भी निकाले गए है |
सहजन के बारे में कुछ निम्न तथ्य है :-

  • फिलीपीन्स, मैक्सिको, श्रीलंका, मलेशिया आदि देशों में भी सहजन की काफ़ी माँग है।
  • दक्षिण भारतीय लोग इसके फूल, पत्ती का उपयोग विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में साल भर करते हैं।
  • इस पौधे के सभी भागों का उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जाता है।
  • सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है और छाल पत्ती, गोंद, जड़ आदि से आयुर्वेदिक दवाएं तैयार की जाती हैं।
  • इसमें दूध की तुलना में ४ गुना कैल्शियम और दुगना प्रोटीन पाया जाता है।
  • सहजन के बीज से पानी को काफी हद तक शुद्ध करके पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।  
     ये तो थी तथ्यों की बात अब मै बताता हूँ इसका देशी स्टाइल में फायदा | मेरे घर में पांच छ साल से से इसका पेड़ है | इसका पेड़ लगाना बहुत ही आसान है | इसका पेड़ इतना आसानी से लग जाता है की आप को यकीन नहीं होगा की जिस झोपडी के बीम में इसकी लकड़ी का उपयोग किया जाता हो उसमे भी बगैर मिट्टी के ही पत्तियां फूट नि्कलती है | और यहां तक की एक पेड़ को मैंने एक जगह से दूसरी जगह स्थनांतरित भी किया था जिसका तना तकरीबन दो फुट परीधी का था और वजन लगभग आधा टन था | और उस तने को स्थान ना मिलने की वजह से तीन महीने तक धुप में बगैर पानी और मिट्टी के जमीन पर चित पडा रहा था | उस पर एक भी पत्ती नहीं थी | उस तने को जब तीन महीने बाद खड़ा कर मिट्टी में दबाया गया और पानी दिया तो उसमे भी अंकुरण हुआ और पेड़ फिर तैयार हो गया जिसे आप तस्वीर में देख सकते है |
हमारे घर मे सहजन का वो पेड़ जो स्थनांतरित किया हुआ है 

     अगर आपको मई के महीने में धूप से बचाव हेतु पेड़ चाहिए तो आप जनवरी में इसकी एक शाख जो तकरीबन दस फुट बड़ी हो का वृक्षारोपण कर सकते है तो ये तैयार होकर मई के महीने चारपाई डालकर सोने हेतु छाया दे देगी |कहने का अर्थ ये है की ये बहुत जल्दी विकास करता है |

     इसके फूलो की सब्जी मुझे बहुत पसंद है ,थोड़ा मेहनत वाला काम जरूर है लेकिन स्वाद एक बार जिसे लग जाए वो इसको जिन्दगी भर नहीं भूल सकता है | सब्जी बनाने की विधी -:
इसके फूलों को जो खिले ना हो उनको तोड़ लीजिए कडाही में तेल गर्म कीजिए उसमे प्याज अदरक लहसुन हरी मिर्च आदि भून लीजिये | उसमे सब्जी का मसाला यथा लाल मिर्च धनिया पाउडर हलदी,नमक आदि पानी के साथ मिक्स करके डाल देवे | जब मसाला पक जाए तब उसमे सहजन के फूल(कलियाँ) डाल देवे थोड़ा पानी और मिला देवे जो की पकने पर जल जाता है,अगर आप चाहे तो इसमें टमाटर भी डाल सकते है या फिर पकने के बाद थोड़ा टमाटर सॉस भी मिलाया जा सकता है | तीन मिनट बाद सब्जी को तैयार होने के बाद चूल्हे से उतार लेवे | आपकी लाजवाब सब्जी तैयार है | ये सब्जी जितनी स्वादिष्ट होती है उतनी ही गुणकारी भी होती है | इस सब्जी को बदहजमी वाले,मधुमेह वाले ,ह्रदय रोग के मरीज भी आराम से खा सकते है | इसकी फली की सब्जी भी इसी प्रकार से बनती है अंतर केवल इतना है की फली की सब्जी में पानी की मात्रा ज्यादा रखते है जिससे चावल के साथ भी खाया जा सकता है |
इन फूलों और  कलियों को सब्जी हेतु तोड़ा गया है 

     इसके फूल, फली व पत्तों में इतने पोषक तत्त्व हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) के मार्गदर्शन में दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में कुपोषण पीडित लोगों के आहार के रूप में सहजन का प्रयोग करने की सलाह दी गई है। एक से तीन साल के बच्चों और गर्भवती व प्रसूता महिलाओं व वृद्धों के शारीरिक पोषण के लिए यह वरदान माना गया है। हमारे यंहा भी कैन्सर व पेट आदि शरीर के आभ्यान्तर में उत्पन्न गांठ, फोड़ा आदि में सहजन की जड़ का अजवाइन, हींग और सौंठ के साथ काढ़ा बनाकर पीने का प्रचलन है। यह भी पाया गया है कि यह काढ़ा साइटिका (पैरों में दर्द), जोड़ो में दर्द, लकवा, दमा, सूजन, पथरी आदि में लाभकारी है। जोड़ो का दर्द वायु विकार के कारण होता है | और सहजन वायु नाशक माना जाता है|सहजन के गोंद को जोड़ों के दर्द और शहद को दमा आदि रोगों में लाभदायक माना जाता है। आज भी ग्रामीणों की ऐसी मान्यता है कि सहजन के प्रयोग से विषाणु जनित रोग चेचक के होने का खतरा टल जाता है।

     अब आते है पानी साफ़ करने वाली बात पर | इस से पहले भी पानी के शुद्धीकरण के लिए मैंने एक पोस्ट लिखी थी | पानी के शुद्धीकरण के लिए ये उपाय भी आप आजमा सकते है | माइक्रोबायलोजी के करेंट प्रोटोकॉल में कम लागत में पानी को साफ करने की तकनीक प्रकाशित की गई है। यह तकनीक आसान और सस्ती है। इस तकनीक की मदद से विकासशील देशों में जल जनित रोगों से बड़े पैमाने पर होने वाली मौत की घटनाओं पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। इस तकनीक में पानी को साफ करने के लिए सहजन के बीज का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया के द्वारा पानी को 90.00 फीसदी से 99.99 फीसदी तक बैक्टीरिया रहित किया जा सकता है।

     सहजन दो प्रकार का पाया जाता है एक मीठा दूसरा कड़वा मीठे सहजन का ही उपयोग किया जाता है कडवे का उपयोग नहीं करते है | इस के बारे में कुछ और जानकारी चाहिए तो आप मुझे टिप्पणी द्वारा बताये या सीधे ही मेल करे |

राजपूती दोहे

झिरमिर झिरमिर मेवा बरसे !
झिरमिर झिरमिर मेवा बरसे मोरां छतरी छाई जी ।
कलमें हो तो आव सुजाणा फौज देवरे आयी जी ।।
खाली धङ रि कद हुवे चेहरे बीनापिछाण,
खाली धङ रि कद हुवे चेहरे बीनापिछाण, राजपूता रे बीना क्यारो राजस्थान ।
"तुरक सराह्यो तोर, तेग तणों थारो त्रिमल
"तुरक सराह्यो तोर, तेग तणों थारो त्रिमल,
राज करो नागौर, दीन्हो मनसब राव को ।"
"गौङ बुलावे घाटवे चढ़ आओ शेखा ।
"गौङ बुलावे घाटवे चढ़ आओ शेखा ।
थारा लशकर मारणा देखण का अभलेखा ।।
काढी खग्ग
" काढी खग्ग हाथ नीकी चोकी किनात बाढी,
सिस दाढी मियाँ गिरे गिरवान को ।।
नूरुद्दीन भाग्यो लार लाग्यो नहीं जान दीनू,
खबर लागी मार डारयो सारो कुल खांनको ।।
टोडरमल
तू शेखो तू रायमल तू ही रायासाल ।
जयसिंह का दल ऊजला थांसूं टोडरमल ।।
दोय उदयपुर ऊजला दो दातार आटल्ल ।
यक तो राणू जगतसी दूजो टोडरमल ।।
राजपुतो ने अपना एक कौल रखा,
राजपुतो ने अपना एक कौल रखा,
चाहते हैं सब ही राज की रक्खा ।।
हमारा तो मरने का ही इरादा,
इसी राह पर काम आये बाप-दादा ।।
सौ राजन का राजा कैसा
सौ राजन का राजा कैसा,
जेठ मास कि आफताब जैसा ।।
रण का पहाड़, दुश्मन कि भुजा उपाङ,
तेग का बहादुर ढुंढाहङ का किँवाङ ।।
दारु मीठी दाख री,
दारु मीठी दाख री, सूरां मीठी शिकार ।
सेजां मीठी कामिणी, तो रण मीठी तलवार ।।
व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ !
गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !!
दारु पीवो रण चढो, राता राखो नैण ।
बैरी थारा जल मरे, सुख पावे ला सैण ॥
चार बांस चौबीस गज
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण !
ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान !!
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण !
ता ऊपर सुल्तान है, मार मार मोटे तवे मत चूके चौहान !!
अबकी चढ़ी कमान ,को जानै फिर कब चढे ।
जिनि चुक्केचौहान, इक्के मारे इक्क सर।।
एक पुराणी कहावत -
जे कोई जणती राणियां, डूंग जिस्यो दीवाण ।
तो इण हिन्दुस्तान मे पलतो नही फिरंगाण ।।
ग्राण्ट नामक अंग्रेज लिखता है -
मैंने भारत में कई युद्ध देखं और कई बहादुरों को द्रढ़ता से लङते देखा ।
किन्तु राजपुत जमींदारों के रण-कौशल से बढकर कोई युद्ध नहीं देखा ।।
नोट - बिहार बैशवारा के राव बेनी सिंह जी से हुवे 23 जुन 1857 नवाबगंज ( लखनऊ ) के युद्ध के बाद का कथन है ।।
रण खेती रजपूत री,कबहू न पीठ धरेह !
देश रुखाले आपणे, दुखिया पीड़ हरे !
   युद्ध एक खेत हे जहा रजपूत वीरो की खेती होती हे  जो कभी युद्ध में अपनी पीठ नही दिखाते और अपने देश की रक्षा करके अपनी प्रजा के दुखो को दूर करता है।

शनिवार, 27 जून 2015

देख आज मेवाड़ मही को आड़ावल की चोटी नीली


  • देख आज मेवाड़ मही को आड़ावल की चोटी नीली,

उसकी बीती बात याद कर आज हमारी आंखें गीली ।

जिसके पत्थर-पत्थर में थी जय नादों को ध्वनि टकराई,

जहाँ कभी पनपा था जीवन वहाँ मरण की छाया छाई,

अरे तुम्हारी गोदी में ही भला पली क्या मीरां बाई?

क्या प्रताप था तेरा बेटा तू ही उस की प्यारी माई?

स्वयं वही तू, बतलाती है चारण की वह पोथी पीली,

गत गौरव की कथा याद कर आज हमारी आंखें गीली ।

घाटी-घाटी फिरा भटकता गहन विजन में डाले डेरे उस प्रताप ने सब कुछ सहकर गये तुम्हारे दिन थे फेरे,

पर तू ऐसी हीन हुई क्यों कहाँ आज वे वैभव तेरे? बदल गई है तू ही या तो बदल गये मां साँझ-सबेरे?

आज हमारा शोणित ठंडा आज हमारी नस-नस ढीली,

गत गौरव की कथा याद कर आज हमारी आंखें गीली,

यहाँ जली जौहर की ज्वाला नभ तक जिसकी लपटें फैली जो कल तक था धर्म हमारा आज हमारे लिये पहेली,

यहीं रूप की रानी पद्मा अग्नि शिखा से पुलकित खेली आज विश्व के इतिहासों में अपने जैसी वही अकेली,

जहाँ रक्त की धार बही थी आज वहाँ की धरती पीली,

गत गौरव की बात याद कर आज हमारी आँखें गीली,

मूक खड़ा चितौड़ बिचारा अन्तिम सांसें तोड़ रहा है,

गत गौरव का प्रेत शून्य में टूटे सपने जोड़ रहा है ।

अपने घायल अरमानों को अंगड़ाई ले मोड़ रहा है,

सांय-सांय कर उष्ण हवा मिस उर की आहें छोड़ रहा है,

फिर भी तो मेवाड़ी सोया पी ली उस ने सुरा नशीली,

गत गौरव की बात याद कर आज हमारी आँखें गीली ।

आग  धधकती है सीने मे,

आग  धधकती है सीने मे,
आँखोँ से अंगारे,
हम भी वंशज है राणा के,
कैसे रण हारे...?

कैसे कर विश्राम रुके हम...?
जब इतने कंटक हो,
राजपूत विश्राम करे क्योँ,
जब देश पर संकट हो.
अपनी खड्ग उठा लेते है,
बिन पल को हारे,

आग धधकती है सीने मे...........

सारे सुख को त्याग खडा है,
राजपूत युँ तनकर,
अपने सर की भेँट चढाने,
देशभक्त युँ बनकर..

बालक जैसे अपनी माँ के,
सारे कष्ट निवारे.

आग धधकती है सीने मे...........

धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।

धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।


धन्य हुआ रे सारा मेवाड़, जहां कदम रखे थे प्रताप ने॥

फीका पड़ा था तेज़ सुरज का, जब माथा उन्चा तु करता था।

फीकी हुई बिजली की चमक, जब-जब आंख खोली प्रताप ने॥

जब-जब तेरी तलवार उठी, तो दुश्मन टोली डोल गयी।

फीकी पड़ी दहाड़ शेर की, जब-जब तुने हुंकार भरी॥

था साथी तेरा घोड़ा चेतक, जिस पर तु सवारी करता था।

थी तुझमे कोई खास बात, कि अकबर तुझसे डरता था॥

हर मां कि ये ख्वाहिश है, कि एक प्रताप वो भी पैदा करे।

देख के उसकी शक्ती को, हर दुशमन उससे डरा करे॥

करता हुं नमन मै प्रताप को,जो वीरता का प्रतीक है।

तु लोह-पुरुष तु मातॄ-भक्त,तु अखण्डता का प्रतीक है॥

हे प्रताप मुझे तु शक्ती दे,दुश्मन को मै भी हराऊंगा।

मै हु तेरा एक अनुयायी,दुश्मन को मार भगाऊंगा॥

है धर्म हर हिन्दुस्तानी का,कि तेरे जैसा बनने का।

चलना है अब तो उसी मार्ग,जो मार्ग दिखाया प्रताप ने॥..

मै दुर्गा की जयेष्ट-पुत्री,क्षात्र-धर्म की शान रखाने आई हूँ !

मै दुर्गा की जयेष्ट-पुत्री,क्षात्र-धर्म की शान रखाने आई हूँ !

मै सीता का प्रतिरूप ,सूर्य वंश की लाज रखाने आई हूँ!1! 

मै कुंती की अंश लिए ,चन्द्र-वंश को धर्म सिखाने आई हूँ !
मै सावित्री का सतीत्त्व लिए, यमराज को भटकाने आई हूँ !२!

मै विदुला का मात्रत्व लिए, तुम्हे रण-क्षेत्र में भिजवाने आई हूँ !
मै पदमनी बन आज,फिर से ,जौहर की आग भड़काने आई हूँ !३!
मै द्रौपदी का तेज़ लिए , अधर्म का नाश कराने आई हूँ !
मै गांधारी बन कर ,तुम्हे सच्चाई का ज्ञान कराने आई हूँ !४!

मै कैकयी का सर्थीत्त्व लिए ,तुम्हे असुर-विजय कराने आई हूँ !
मै उर्मिला बन ,तुम्हे तम्हारे क्षत्रित्त्व का संचय कराने आई !५!

मै शतरूपा बन ,तुम्हे सामने खडी , प्रलय से लड़वाने आई हूँ!
मै सीता बन कर ,फिर से कलयुगी रावणों को मरवाने आई हूँ!६!

मै कौशल्या बन आज ,राम को धरती पर पैदा करने आई हूँ !
मै देवकी बन आज ,कृष्ण को धरती पर पैदा करने आई हूँ !७!

मै वह क्षत्राणी हूँ जो, महा काळ को नाच नचाने आई हूँ !
मै वह क्षत्राणी हूँ जो ,तुम्हे तुम्हारे कर्तव्य बताने आई हूँ !८!

मै मदालसा का मात्रत्त्व लिए, माता की माहिमा,दिखलाने आई हूँ !
मै वह क्षत्राणी हूँ जो ,तुम्हे फिर से स्वधर्म बतलाने आई हूँ !९!

हाँ तुम जिस पीड़ा को भूल चुके, मै उसे फिर उकसाने आई हूँ !
मै वह क्षत्राणी हूँ ,जो तुम्हे फिर से क्षात्र-धर्म सिखलाने आई हूँ !१०!
"जय क्षात्र-धर्म "

तुम कुल को क्यों कलकिंत करते हो

क्या जंग लगी तलवारों में, जो इतने दुर्दिन सहते हो I
राणा प्रताप के वंशज हो,क्यों कुल को कलंकित करते हो II
आराध्य तुम्हारे राम-कृष्ण,जो कर्म की राह दिखाते थे I
जो दुश्मन हो आततायी, वो चक्र सुदर्शन उठाते थे I
श्री राम ने रावण को मारा, तुम गद्दारों से डरते हो II
जब शस्त्रों से परहेज तुम्हे,तो राम राम क्यों जपते हो I
क्या जंग लगी तलवारों में,जो इतने दुर्दिन सहते हो II
अंग्रेजों ने दौलत लूटी,मुगलों ने थी इज्जत लूटी I
दौलत लूटी, इज्जत लूटी, क्या खुद्दारी भी लूट लिया,
गिद्धों ने माँ को नोंच लिया,तुम शांति शांति को जपते हो I
इस भगत सुभाष की धरती पर,क्यों नामर्दों से रहते हो?
क्या जंग लगी तलवारों में जो इतने दुर्दिन सहते हो II
हिन्दू हो,कुछ प्रतिकार करो,तुम भारत माँ के क्रंदन का I
यह समय नहीं है, शांति पाठ और गाँधी के अभिनन्दन का II
यह समय है शस्त्र उठाने का,गद्दारों को समझाने का,
शत्रु पक्ष की धरती पर,फिर शिव तांडव दिखलाने का II
इन जेहादी जयचंदों की घर में ही कब्र बनाने का,
यह समय है हर एक हिन्दू के,राणा प्रताप बन जाने का I
इस हिन्दुस्थान की धरती पर ,फिर भगवा ध्वज फहराने का II
ये नहीं शोभता है तुमको,जो कायर सी फरियाद करोI
छोड़ो अब ये प्रेमालिंगन,कुछ पौरुष की भी बात करोII
इस हिन्दुस्थान की धरती के,उस भगत सिंह को याद करो,
वो बन्दूको को बोते थे,तुम तलवारों से डरते होI
क्या जंग लगी तलवारों में जो इतने दुर्दिन सहते हो II

संगठन गढ़े चलो

संगठन गढ़े चलो
सुपंथ पर बढ़े चलो भला हो जिस में देश का वो काम सब किए चलो ।। युग के साथ मिलके सब कदम बढ़ाना सीख लो एकता के स्वर में गीत गुनगुनाना सीख लो भूलकर भी मुख से जाति पंथ की न बात हो भाषा प्रान्त के लिए कभी ना रक्त पात हो फूट का भरा घड़ा है फोड़कर भरे चलो भला हो जिस में देश का वो काम सब किए चलो ।। आ रही है आज चारों ओर से यही पुकार हम करेंगे त्याग मातृभूमि के लिए अपार कष्ट जो मिलेंगे मुस्करा के सब सहेंगे हम देश के लिए सदा जिएगें और मरेंगे हम देश का ही भाग्य अपना भाग्य है ये सोच लो भला हो जिस में देश का वो काम सब किए चलो ।।