धरती तूं संभागणी ,(थारै) इंद्र जेहड़ो भरतार।
पैरण लीला कांचुवा , ओढ़ण मेघ मलार।।
रंग आज आणन्द घणा, आज सुरंगी नेह।
सखी अमिठो गोठ में , दूधे बूठा मह।।
गोरबंद और रमझोलो से झमक झमक करते हुए ऊँटों और घोड़ों वाली वह बारात जा रही थी , सूखे मरुस्थल की मन्दाकिनी प्रवाहित करती हुई , आनंद और मंगल से ठिठोली करती हुई । परन्तु कौन जनता था कि उस सजी सजाई बारात का वह अलबेला दूल्हा एक दिन जन जन के हृदय का पूज् देवता बनेगा ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें